logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

कार्तिकपूर्णिमा
यह शरद ऋतु की अन्तिम तिथि है जो बहुत पवित्र औऱ पुण्यदायिनी मानी जाती है। इस अवसर पर कई स्थानों पर मेले लगते हैं। सोनपुर में हरिहर क्षेत्र का मेला तथा गढ़मुक्तेश्वर (मेरठ), वटेश्वर (आगरा), पुष्कर (अजमेर) आदि के विशाल मेले इसी पर्व पर लगते हैं। व्रजमण्डल और कृष्णोपासना से प्रभावित अन्य प्रदेशों में इस समय रासलीला होती है।
इस तिथि पर किसी को भी बिना स्नान और दान के नहीं रहना चाहिए। स्नान पवित्र स्थान एवं पवित्र नदियों में एवं दान अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिए। न केवल ब्राह्मण को अपितु निर्धन सम्बन्धियों, बहिन, बहिन के पुत्रों, पिता की बहिनों के पुत्रों, फूफा आदि को भी दान देना चाहिए। पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा वाराणसी के तीर्थस्थान इस कार्तिकी स्नान और दान के लिए अति महत्वपूर्ण है।

कार्तिकेयव्रत
षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। स्वामी कार्तिकेय इसके देवता हैं। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.605, 606; व्रतकालविवेक, पृष्ठ 24।

कार्तिकेयषष्ठि
मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस दिन सुवर्णमयी, रजतमयी, काष्ठमयी अथवा मृन्मयी कार्तिकेय की प्रतिमा का पूजन होता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.596-600।

कार्ष्णाजिनि
आचार्य कार्ष्णाजिनि के नाम का उल्लेख ब्रह्मसूत्र (3.1.9) और मीमांसासूत्र (4.3.17; 6.7.35) दोनों में हुआ है। ये भी व्यासदेव और जैमिनि के पूर्ववर्ती आचार्य हैं। इनका उल्लेख व्यासदेव ने अपने मत के समर्थन में और जैमिनि ने इनका खण्डन करने के लिए किया है। इससे मालूम होता है कि ये वेदान्त के ही आचार्य थे। ये प्रायः बादरि के मत के समर्थक प्रतीत होते हैं।

कारिका
स्मरणीय छन्दोबद्ध पद्यों के संकलन को कारिका कहते हैं। हिन्दू दार्शनिकों ने अपने दर्शन के सारविषय को या तो सूत्रों के रूप में या कारिका के रूप में अपने अनुगामियों के लाभार्थ प्रस्तुत किया, ताकि वे इसे कंठस्थ कर लें। उनके अनुगामियों ने उन सूत्रों या कारिकाओं के ऊपर भाष्य आदि लिखे। उदाहरण के लिए सांख्यदर्शन पर ईश्वरकृष्ण की 'सांख्यकारिका' अत्‍यन्त प्रसिद्ध है, जिसका अनुवाद अति प्राचीन काल में चीनी भाषा में उस देश की राजाज्ञा से हुआ था।

कारिकावाक्यप्रदीप
पाणिनि पर अवलम्बित अनेक व्याकरणसिद्धान्त ग्रन्थों में एक कारिकावाक्यप्रदीप है। इससे सम्बन्धित चार अन्य टीकाग्रन्थ-व्याकरण-भूषण, भूषणसारदर्पण, व्याकरणभूषण सार एवं व्याकरण-सिद्धान्तमञ्जूषा हैं। 'वाक्यप्रदीप' व्याकरण का दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें भी कारिकाएँ हैं।

कारिणनाथ
नाथ सम्प्रदाय में नौ मुख्य कहे गये हैं: गोरखनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ आदि। कारिणनाथ उनमें तीसरे हैं। गोरखपंथी कनफट्टा योगियों के अन्तर्गत कारिणनाथ के विचारों का समावेश होता है।

कारुणिकसिद्धान्त
कारुणिक सिद्धान्त को 'कालमुख शैव सिद्धान्त' भी कहते हैं। महीशूर (कर्नाटक) के समीप 'दक्षिण केदारेश्वर' का मन्दिर प्रसिद्ध है। वहाँ की गुरुपरम्परा में श्रीकण्टाचार्य वेदान्त के भाष्यकार हुए हैं। वे आचार्य रामानुज की तरह विशिष्टाद्वैतवादी थे और कालमुख शैव 'लकुलागम समय' सम्प्रदाय के अनुयायी थे। श्रीकण्ठ शिवाचार्य ने वायवीय संहिता के आधार पर सिद्ध किया है कि भगवान् महेश्वर अपने को उमा शक्ति से विशिष्ट कर लेते हैं। इस शक्ति में जीव और जगत्, चित् औऱ अचित्, दोनों का बीज वर्तमान रहता है। उसी शक्ति से भगवान् महेश्वर चराचर की सृष्टि करते हैं। इसी सिद्धान्त को 'शक्तिविशिष्टाद्वैत' कहते हैं, यही कारुणिक सिद्धान्त भी कहलाता है। वीर शैव अथवा लिङ्गायत इस शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को भी अपनाते हैं। दक्षिण का लकुलीश सम्प्रदाय भी प्राचीन और नवीन दो रूपों में बँटा हुआ है और कदाचित् इस सम्प्रदाय के अनुयायी कालमुख अथवा कारुणिक सिद्धान्त को मानते हैं।

कारोहन
दे० 'कायारोहण'।

काल
वैशेषिक दर्शन के अनुसार कुल नौ द्रव्य हैं। इनमें छठा द्रव्य 'काल' है। यह सभी क्रिया, गति एवं परिवर्तन को उत्पन्न करनेवाली शक्ति के अर्थ में प्रयुक्त होता है और इस प्रकार दो समयों के अन्तर को प्रकट करने का आधार है। सातवाँ द्रव्य दिक् (दिशा) काल को सन्तुलित करता है। तन्त्रमत से अन्तरिक्ष में काल की अवस्थिति है और इस काल से ही जरा की उत्पत्ति होती है। भाषापरिच्छेद के अनुसार काल के पाँच गुण हैं --1. संख्या, 2. परिमाण, 3. पृथक्त्व, 4. संयोग, 5. विभाग।
विष्णुपुराण (1.2.14) में काल को परब्रह्म का रूप माना गया है:
परस्य ब्रह्मणो रूपं पुरुषः प्रथमं द्विज। व्यक्ताव्यक्ते तथैवन्ये रूपे कालस्तथा परम्।।
तिथ्यादितत्त्व में काल की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है:
अनादिनिधनः कालो रुद्रः संकर्षणः स्मृतः। कलनात् सर्वभूतानां स कालः परिकीर्तितः।।
[काल आदि और निधन (विनाश) रहित, रुद्र और संकर्षण कहा गया है। समस्त भूतों की कलना (गणना) करने के कारण यह काल ऐसा प्रसिद्ध है।] हारीत (प्रथम स्थान, अ० 4) के द्वारा काल का विस्तृत वर्णन किया गया है :
[काल तीन प्रकार का जानना चाहिए;अतीत (भूत), अनागत (भविष्य) और वर्त्तमान। इसका लक्षण कहता हूँ, सुनो। काल लोक की गणना करता है, काल जगत् की गणना करता है, काल विश्व की गणना करता है, इसलिए यह काल कहलाता है। सभी देव, ऋषि, सिद्ध और किन्नर काल के वश हैं। काल स्वयं ही भगवान् देव है; वह साक्षात् परमेश्वर है। वह सृष्टि, पालन और संहार करनेवाला है। वह काल सर्वत्र समान है। काल से ही विश्व की कल्पना होती है, इसलिए वह काल कहलाता है। जिससे उत्पत्ति होती है, जिससे कला की कल्पना होती है, वही जगत् की उत्पत्ति करनेवाला काल जगत् का अन्त करनेवाला भी होता है। जो सभी कर्मों को बढ़ते हुए और होते हुए देखता है, उसी काल को प्रवर्तक जानना चाहिए। वही प्रतिपालक भौ होता है। जिसके द्वारा किया हुआ विनाश को प्राप्त होता है, अथवा जय को प्राप्त होता है, वही काल संहर्ता और कलना में संलग्न है। काल ही सम्पूर्ण भूतों को उत्पन्न करता है, काल ही प्रजा का संहार करता है, काल ही सोता और जागता है। काल दुरतिक्रम है अर्थात् उसका कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता।]
भागवत पुराण (9.9.2) में काल मृत्यु का पर्याय माना गया है। मेदिनीकोश में काल को ही महाकाल कहा गया है और दीपिका में शनि।


logo