शैव आगमों में सबसे पहला आगम 'कामिक' है। इसमें समस्त शैव पूजा पद्धतियों का विस्तृत वर्णन है।
कामिकाव्रत
मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस तिथि को सुवर्ण अथवा रजतप्रतिमा का, जिस पर चक्र अंकित हो, पूजन करना चाहिए। पूजन करने के पश्चात् उसे दान कर देना चाहिए।
काम्पिल
यह स्थान बदायूँ जिले में है। पूर्वोत्तर रेलवे की आगरा-कानपुर लाइन पर कायमगंज रेलवे स्टेशन है। कायमगंज से छः मील दूर काम्पिल तक पक्की सड़क जाती है। किसी समय काम्पिल (ल्य) महानगर था। यहाँ रामेश्वरनाथ और कालेश्वरनाथ महादेव के प्रसिद्ध मन्दिर हैं और कपिल मुनि की कुटी है।
जैनों के अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर का समवशरण भी यहाँ आया था। यहाँ प्राचीन जैनमन्दिर है, जिसमें विमलनाथजी की तीन प्रतिमाएँ हैं। एक जैनधर्मशाला है। चैत्र और आश्विन में यहाँ मेला लगता है।
काम्पील
यजुर्वेदसंहिता के एक मन्त्र में 'काम्पीलवासिनी' सम्भवतः राजा की प्रधान रानी को कहा गया है, जिसका कर्त्तव्य अश्वमेध यज्ञ के समय मेधित पशु के पास सोना था। बिल्कुल ठीक अर्थ अनिश्चित है। वेबर एवं जिमर दोनों काम्पील एक नगर का नाम बतलाते हैं, जो परवर्ती साहित्य में काम्पिल्य कहलाया एवं जो मध्यदेश (आज के उत्तर प्रदेश) में दक्षिण पञ्चाल की राजधानी था।
काम्यकतीर्थ या काम्यक वन
कुरुक्षेत्र के सात पवित्र वनों में से एक। यह सरस्वती के तट पर स्थित है। यहीं पर पाण्डवों ने अपने प्रवास के कुछ दिन बिताये थे। यहाँ वे द्वैतवन से गये थे। ज्योतिसर से पेहवा जाने वाली सड़क के दक्षिण में लगभग ढाई मील पर कमोधा ग्राम है। काम्यक का अपभ्रंश ही कामोधा है। यहाँ ग्राम के पश्चिम में काम्यक तीर्थ है। सरोवर के एक ओर प्राचीन पक्का घाट है तथा भगवान् शिव का मन्दिर है। चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रति वर्ष यहाँ मेला लगता है।
कायव्यूह
योगदर्शन में अनेक शारीरिक क्रियाओं द्वारा मन को केन्द्रित करने का निर्देश है। जब योगशास्त्र से तन्त्रशास्त्र का मेल हो गया तो इस 'कायव्यूह' (शारीरिक यौगिक क्रियाओं) का और भी विस्तार हुआ, जिसके अनुसार शरीर में अनेक प्रकार के चक्र आदि कल्पित किये गये। क्रियाओं का भी अधिक विस्तार हुआ और हठयोग की एक स्वतन्त्र शाखा विकसित हुई, जिसमें नेति, धौति, वस्ति आदि षट्कर्म तथा नाडीशोधन आदि के साधन बतलाये गये हैं।
काया (गोरखपंथ के मत से)
गोरखनाथ पंथी का साधक काया को परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना करता है। काया उसके लिए वह यन्त्र है, जिसके द्वारा वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है; जन्म-मरण-जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है; जरा, मरण, व्याधि और काल पर विजय पा जाता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले कायाशोधन करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग के षट्कर्म (नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभाति और त्राटक) करता है जिससे काया शुद्ध हो जाय। हठयोग पर घेरण्ड ऋषि की लिखी 'घेरण्डसंहिता' एख प्राचीन ग्रन्थ है और परम्परा से इसकी शिक्षा बराबर चली आयी है। नाथपन्थियों ने उसी प्राचीन सात्त्विक प्रणाली का उद्धार किया है।
कायारोहण
लाट (गुर्जर) प्रान्त में एक स्थानविशेष है। वायुपुराण के एक परिच्छेद में लकुलीश उपसम्प्रदाय (पाशुपत सम्प्रदाय के एक अङ्ग) के वर्णन में उद्धृत है कि शिव प्रत्येक युग में अवतरित होंगे और उनका अन्तिम अवतार तब होगा जब कृष्ण वासुदेव रूप में अवतरित होंगे। शिव योगशक्ति से कायारोहण स्थान पर एक मृतक शरीर में, जो वहाँ अरक्षित पड़ा होगा, प्रवेश करेंगे तथा लकुलीश नामक संन्यासी के रूप में प्रकट होंगे। कुशिक, गार्ग्य, मित्र एवं कौरश्य उनके शिष्य होंगे जो शरीर पर भस्म मलकर पाशुपत योग का अभ्यास करेंगे।
उदयपुर से 14 मील दूर स्थित एकलिङ्गजी के एक पुराने मन्दिर के लेख से इस बात की पुष्टि होती है कि भगवान् शिव भड़ौच प्रान्त में कायारोहण स्थान पर अवतरित हुए एवं अपने हाथ में एक लकुल धारण किये हुए थे। चित्रप्रशस्ति में भी उपर्युक्त कथानक प्राप्त होता है कि शिव पाशुपत धर्म के कड़े नियमों के पालनार्थ लाट प्रान्त के करोहन (सं० कायारोहण) में अवतरित हुए। यह स्थान गुजरात में आजकल 'करजण' (कायारोहण का विकृत रूप) कहलाता है। यहाँ अब भी लकुलीश का एक मन्दिर है, जिसमें उनकी प्रतिमा स्थापित है।
कार्तिक
यह बड़ा पवित्र मास माना जाता है। यह समस्त तीर्थों तथा धार्मिक कृत्यों से भी पवित्रतर है। इसके माहात्म्य के लिए देखिए स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड का नवम अध्याय; नारदपुराण (उत्तरार्द्ध), अध्याय 22; पद्मपुराण, 4.92।
कार्तिकस्नानव्रत
सम्पूर्ण कार्तिक मास में गृह से बाहर किसी नदी अथवा सरोवर में स्नान करना चाहिए। गायत्री मन्त्र का जप करते हुए हविष्यान्न केवल एक बार ग्रहण करना चाहिए। व्रती इस व्रत के आचरण से वर्ष भर के समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। दे० विष्णु धर्मोत्तर, 81-1-4; कृत्यकल्पतरु, 418 द्वारा उद्धृत; हेमाद्रि, 2.762।
कार्तिक मास में समस्त त्यागने योग्य वस्तुओं में मांस विशेष रूप से त्याज्य है। श्रीदत्त के समयप्रदीप (46) तथा कृत्यरत्नाकर (पृ० 397-399) में उद्धृत महाभारत के अनुसार कार्तिक मास में मांसभक्षण, विशेष रूप से शुक्ल पक्ष में, त्याग देने से इसका पुण्य शत वर्ष तक के तपों के बराबर हो जाता है। साथ ही यह भी कहा गया है कि भारत के समस्त महान् राजा, जिनमें ययाति, राम तथा नल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, कार्तिक मास में मांस भक्षण नहीं करते थे। इसी कारण उनको स्वर्ग की प्राप्ति हुई। नारदपुराण (उत्तरार्द्ध, 21-58) के अनुसार कार्तिक मास में मांस खानेवाला चाण्डाल हो जाता है। दे० 'बकपञ्चक'।
शिव, चण्डी, सूर्य तथा अन्यान्य देवों के मन्दिरों में कार्तिक मास में दीप जलाने तथा प्रकाश करने की बड़ी प्रशंसा की गयी है। समस्त कार्तिक मास में भगवान् केशव का मुनि (अगस्त्य) पुष्पों से पूजन किया जाना चाहिए। ऐसा करने से अश्वमेध यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है। दे० तिथितत्त्व 147।