पाशुपत शैवों का एक सम्प्रदाय। इसका शाब्दिक अर्थ है 'कपाल (खोपड़ी) धारण करने वाला'। कपाल मृतक अथवा मृत्यु का प्रतीक है, जिसका सम्बन्ध शिव के विध्वंसक, घोर अथवा रौद्र रूप से है। कापालिकों का आचार-व्यवहार वाममार्गी शाक्तों से मिलता-जुलता है। इनकी संख्या कभी भी अधिक नहीं थी। वास्तव में एक संघटित सम्प्रदाय की अपेक्षा कुछ साधकों का ही यह एक समुदाय रहा है।
कापालिक मत के उद्गम के विषय में पुराणों में अद्भुत कथाएँ दी हुई हैं। इनमें से एक के अनुसार शिव ने ब्रह्मा का वध किया था। इसका प्रायश्चित्त करने के लिए उन्होंने कपाली व्रत धारण किया और ब्रह्मा का कपाल उनके हाथ में पड़ा रह गया। कपाली व्रत एक प्रकार का उन्मत्तव्रत था, जिसके द्वारा शिव ब्रह्महत्या से मुक्ति पा सके। ब्रह्माण्डपुराण तथा नीलमत-पुराण में इससे भिन्न शिवताण्डव की कथा दी हुई है। शिव का घोर ताण्डव संसार के विध्वंसक भीषण भार को स्वयं वहन करने के लिए है, जिससे विश्व इसकी विभीषिका से सुरक्षित रहे। कापालिक साधकों का भी यही उद्देश्य है। उनके घोर रूप के भीतर महती करुणा छिपी रहती है। परन्तु कभी-कभी पथभ्रष्ट कापालिक भ्रमवश शिव का अनुकरण करते हुए मानव-शिर काटने का अभिनय भी करते थे। ऐसी घटनाएँ कभी-कभी बीच में सुनाई पड़ती हैं। 'शंकरदिग्विजय' काव्य में आचार्य शंकर के साथ घटी एक ऐसी ही दुर्घटना का उल्लेख है। ये जटाजूट धारण करते हैं, जूट में नवचन्द्र की प्रतिमा प्रतिष्ठित रहती है, इनके हाथ में नरकपाल का कमण्डलु रहता है, ये कपालपात्र में मदिरा-मांस का भी सेवन करते हैं।
कापालिकों का प्राचीनतम उल्लेख महाभारत में पाया जाता है। परन्तु वहाँ शैव रूप में ही वे चित्रित हैं, बीभत्स रूप में नहीं। चालुक्य नागवर्धन (सातवीं शती) के कपालेश्वर मंदिर के अभिलेख में कापालिकों का वर्णन महाव्रती के रूप में मिलता है। इसके अनन्तर आठवीं शताब्दी के भवभूतिरचित 'मालतीमाधव' नाटक में कापालिक साधक अघोरघण्ट का उल्लेख आता है, जिसका सम्बन्ध श्रीशैल पर्वत (आन्ध्र) से था।
ग्यारहवीं शताब्दी के चन्देल राजाओं के राजपण्डित कृष्णमिश्र द्वारा रचित 'प्रबोधचन्द्रोदय' में भी कापालिकों की चर्चा है। इस ग्रन्थ के अनुसार कापालिकों का सम्बन्ध नरबलि, श्रीचक्र, योगसाधन तथा अनेक घोर असामाजिक क्रियाओं से था। योगदीपिका (1.8, 3.96) में कापालिकों का उल्लेख मिलता है :
निषेव्यते शीतलमद्यधारा कापालिके खण्डमतेऽमरोली।'
किसी समय कश्मीर में कापालिक-उत्सव मनाया जाता था। कृष्ण चतुर्दशी के दिन नृत्य, गीत, सामूहिक यौन विहार के साथ यह उत्सव सम्पन्न होता था। आजकल यह सम्प्रदाय प्रायः लुप्त है।
कापाली
शिव का एक विरुद, क्योंकि वे अपने घोर वेश में नरकपाल धारण करते हैं। महाभारत (13.17.102) में कथन है :
अजैकपाच्च कापाली त्रिशङ्कुरजितः शिवः।
कापेय
कपि' गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति। काठकसंहिता और पञ्चविंश ब्राह्मण में कापेयों को चित्ररथ का पुरोहित कहा गया है। दे० 'शौनक'।
कामतानाथ (कामदगिरि)
बाँदा जिले में चित्रकूट के अन्तर्गत सीताकुण्ड से डेढ़ मील दर कामतानाथ या कामदगिरि नामक पहाड़ी जो परम पवित्र मानी जाती है। इस पर ऊपर नहीं चढ़ा जाता, इस की परिक्रमा की जाती है। परिक्रमा तीन मील की है। रामचन्द्रजी ने वनवास काल में यहीं अधिक समय व्यतीत किया था।
कामधेनुतन्त्र
शाक्त साहित्य के अंतर्गत 'कामधेनुतन्त्र' की रचना सोलहवी शती में हुई। इसका अंग्रेजी अनुवाद मुनरो द्वारा हुआ है।
कामधेनु' नामक एक व्याकरण ग्रन्थ भी किसी परवर्ती शाकटायन द्वारा लिखा बताया जाता है।
कामत्रिव्रत
इस व्रत में कुछ देवियों, यथा उमा, मेधा, भद्रकाली, कात्यायनी, अनसूया, वरुणपत्नी का पूजन होता है। इनके पूजन से मनोवांछित अभिलाषाओं की पूर्ति होती है।
कामदविधि
इस व्रत में मार्गशीर्ष मास के रविवार के दिन चन्दन से चर्चित करवीर पुष्पों से भगवान् सूर्य की पूजा करना चाहिए।
कामदासप्तमी
फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। इसमें एक वर्ष पर्यन्त सूर्य का पूजन होना चाहिए। इसको चार-चार मास के वर्ष के तीन खण्ड करके फाल्गुन मास से प्रारम्भ किया जाता है। इसमें भिन्न-भिन्न फूलों, भिन्न-भिन्न धूप तथा भिन्न-भिन्न नैवेद्यों के अर्पण का विधान है।
कामदेवपूजा
चैत्र शुक्ल द्वादशी को इस ब्रत का अनुष्ठान होता है। इस तिथि को भिन्न-भिन्न पुष्पों से कपड़े पर चित्रित कामदेव की पूजा होती है। यह चित्रफलक शीतल जल से परिपूर्ण तथा पुष्पों से युक्त कलश के सम्मुख रखा जाना चाहिए। इस दिन पतियों द्वारा अपनी पत्नियों का सम्मान वांछनीय है। दे० कृत्यकल्पतरु का नैत्यकालिक काण्ड, 384।
कामधेनुव्रत
कार्तिक कृष्ण एकादशी से प्रारम्भ होकर लगातार पाँच दिन यह व्रत चलता है। इस तिथि को श्री तथा विष्णु की पूजा होती है। रात्रि में दीपों को घर, गोशाला, चैत्य, देवालय, सड़क, श्मशान भूमि तथा सरोवर में प्रज्ज्वलित करना चाहिए। एकादशी के दिन उपवास करना चाहिए तथा भगवान् विष्णु की प्रतिमा को गौ के घी या दूध में चार दिन स्नान कराना चाहिए। इसके पश्चात् कामधेनु का दान करना चाहिए। यह व्रत समस्त पापों के प्रायश्चित्तस्वरूप भी किया जाता है।