वंग देश की ओर कलाप व्याकरण प्रसिद्ध है। इसे 'कातन्त्रव्याकरण' भी कहते हैं। उस प्रदेश में इसके आधार पर अनेक सुगम व्याकरण ग्रन्थ बनकर प्रचलित हो गये हैं। शर्ववर्मा नामक किसी कार्तिकेयभक्त विद्वान् ने इस ग्रन्थ की रचना की है।
कात्यायन
पाणिनिसूत्रों पर वार्तिक ग्रन्थ रचने वाले एक मुनि। इन्हें निरुक्तकार यास्क एवं महाभाष्यकार पतञ्जलि के मध्यकाल का माना जाता है। कात्यायन ने गायत्री, उष्णिक् आदि सात छन्दों के और भी भेद स्थिर किये हैं। इस छन्दःशास्त्र पर कात्यायनरचित सर्वानुक्रमणिका पठनीय है। कात्यायन वाजसनेय प्रातिशाख्य के रचयिता भी हैं। इसके अतिरिक्त कात्यायन मुनि ने कात्यायन-श्रौतसूत्र एवं कात्यायनस्मृति नामक दो और ग्रन्थों की भी रचना की है। यह नहीं कहा जा सकता कि ये विभिन्न रचनाएँ एक ही ऋषिकृत हैं या अन्यान्य ऋषियों की। कात्यायन गोत्रनाम भी सम्भव है, इस प्रकार उक्त ग्रन्थकर्ता कात्यायन वंशपरम्परा से अनेक हुए होंगे।
कात्यायनस्मृति
(1) हिन्दू विधि और व्यवहार के ऊपर कात्यायन एक प्रमुख प्रमाण और अधिकारी शास्त्रकार हैं। इनका सम्पूर्ण स्मृति ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। भाष्यों और निबन्धों (विश्वरूप से लेकर वीरमित्रोदय तक) में इनके उद्धरण पाये जाते हैं। शङ्ख-लिखित, याज्ञवल्क्य और पराशर ने भी कात्यायन को स्मृतिकार के रूप में स्मरण किया है। कात्यायनस्मृति अपने विषय प्रतिपादन में नारद और बृहस्पति से मिलती-जुलती है। यथा नारद के समान कात्यायन भी 'वाद' के चार पाद-- (1) धर्म (2) व्यवहार, (3) चरित्र और (4) राजशासन मानते हैं और यह भी स्वीकार करते हैं कि परवर्ती पाद पूर्ववर्ती का बाधक है (पराशरमाधवीय, खण्ड 3, भाग 1, पृ० 16-17; वीरमित्रोदय, व्यवहार, 9-10, 120-121)। कात्यायन ने स्त्रीधन के ऊपर विस्तार से विचार किया है और उसके विभिन्न प्रकारों की व्याख्या की है। प्रायः सभी निबन्धकारों ने स्त्रीधन पर कात्यायन को उद्धृत किया है। लगभग एक दर्जन निबन्धकारों ने कात्यायन के 900 श्लोकों को उद्धृत किया है। इन उद्धरणों में कात्यायन ने बीसों बार भृगु का उल्लेख किया है, भृगु के विचार स्पष्टतः मनुस्मृति से मिलते-जुलते हैं।
नारद और बृहस्पति के समान ही व्यवहार पर कात्यायन के विचार विकसित हैं, कहीं-कहीं तो उनसे भी आगे। स्त्रीधन पर कात्यायन के विचार बहुत आगे हैं। कात्यायन ने व्यवहार, प्राड्विवाक, स्तोभक, धर्माधिकरण, तीरित, अनुशिष्ट, सामन्त आदि पदों की नयी परिभाषाएँ भी की हैं। कात्यायन ने पश्चात्कार और जयपत्र में भेद किया है ; पश्चात्कार वादी के पक्ष में वह निर्णय है जो प्रतिवादी के घोर प्रतिवाद के पश्चात् दिया जाता है, जबकि जयपत्र प्रतिवादी की दोषस्वीकृति अथवा अन्य सरल आधारों पर दिया जाता है।
(2) जीवानन्द के स्मृतिसंग्रह (भाग 1, पृ० 603--644) में कात्यायन नाम की एक स्मृति पायी जाती है। इसमें तीन प्रपाठक, उन्तीस खण्ड और लगभग 500 श्लोक हैं। आनन्दाश्रम के स्मतिसंग्रह में यही ग्रन्थ प्रकाशित है। इसको कात्यायन का 'कर्मप्रदीप' कहा गया इससे बहुत सी धार्मिक क्रियाओं पर प्रचुर प्रकाश पड़ता हैं। इसके मुख्य विषय हैं--
यज्ञोपवीत, आचमन, अङ्गस्पर्श, गणेशपूजा, चतुर्दश मातृपूजा, कुश, श्राद्ध, अग्निसंस्कार, अरणि, स्रुक्, स्रुव, स्नान, दन्तधावन, सन्ध्या, प्राणायाम, मन्त्रपाठ, तर्पण, पञ्चमहायज्ञ, अशौच, स्त्रीधर्म आदि। निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि व्यावहारिक (विधिक) और कर्मकाण्डीय कात्यायन दोनों एक ही व्यक्ति हैं। परन्तु यह सत्य है कि बहुत से भाष्यकार और निबन्धकार कर्मप्रदीप के अवतरण कात्यायन के नाम से उद्धृत करते हैं।
कात्यायन का काल चतुर्थ और षष्ठ शती ई० के बीच रखा जा सकता है। कात्यायन मनु और याज्ञवल्क्य का अनुसरण करते हैं और नारद और बृहस्पति को प्रमाण मानते हैं। अतः कात्यायन इनके परवर्ती हुए। इसलिए तीसरी-चौथी शती के पश्चात ही इनको रखा जा सकता है। विश्वरूप, मेधातिथि आदि निबन्धकार कात्यायन को उद्धृत करते हैं। जिससे लगता है कि उनके समय में कात्यायनस्मृति प्रसिद्ध और प्रचलित हो चुकी थी। इसलिए इन निबन्धकारों से 2--3 सौ वर्ष पूर्व ही कात्यायन का काल माना जा सकता है।
कात्यायनश्रौतसूत्र
शुक्ल यजुर्वेद के श्रौतसूत्रों में कात्यायश्रौतसूत्र सबसे प्रसिद्ध है। इसके 26 अध्याय हैं। शतपथ ब्राह्मण के पहले नौ काण्डों में जिन सब क्रियाओं का विचार है, कात्यायनश्रौतसूत्र के पहले अठारह अध्यायों में भी उन्हीं सब क्रियाओं पर विचार किया गया है। उन्नीसवें अध्याय में सौत्रामणी, बीसवें में अश्वमेध, इक्कीसवें में पुरुषमेध, पितृमेध और सर्वमेध, बाईसवें, तेईसवें, और चौबीसवें अध्यायों में एकाह, अहीन और सत्र आदि याज्ञिक क्रियाएँ वर्णित हैं। पचीसवें अध्याय में प्रायश्चित पर और छब्बीसवें में प्रवर्ग पर विचार है।
कात्यायनसूत्र के अनेक भाष्यकार एवं वृत्तिकार हुए हैं। उनमें से यशोगोपी, पितृभूति, कर्क, भर्तृयज्ञ, अनन्त, गङ्गाघर, गदाधर, गर्ग, पद्मनाभ, मिश्र अग्निहोत्री, याज्ञिक देव, श्रीधर, हरिहर और महादेव के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
कात्यायनीव्रत
भागवत के दशम स्कन्ध के 22वें अध्याय में श्लोक 1 से 7 तक इस व्रत का उल्लेख है। कथा यह है कि एक बार नन्दव्रज में कुमारियों ने मार्गशीर्ष मास भर भगवती कात्यायनी की प्रतिमा का पूजन इसलिए किया था कि उन्हें भगवान् कृष्ण पति के रूप में प्राप्त हों। इसलिए धार्मिक आदर्श पति प्राप्त करने के लिए कुमारियाँ और अन्य महिलाएँ भक्तिभाव से इस व्रत का अनुष्ठान करती हैं।
कातीयगृह्यसूत्र
इसके रचयिता पारस्कर हैं और इसमें तीन काण्ड हैं। इसकी पद्धति वासुदेव ने लिखी है। उस पर जयराम की एक टीका है। शङ्कर गणपति की टीका (जिनका प्रसिद्ध नाम रामकृष्ण था) भी बहुत पाण्डित्यपूर्ण है। इसकी भूमिका बड़ी खोज से लिखी गयी है। इन्होंने काण्वशाखा को ही श्रेष्ठ ठहराया है। इनके अतिरिक्त चरक, गदाधर, जयराम, मुरारिमिश्र, रेणुकाचार्य, वागीश्वरीदत्त और वेदमिश्र आदि के भाष्यों का भी प्रचार है।
कान्तारदीपदानविधि
आश्विन पूर्णिमा तक बलिदान के लिए प्रयुक्त होने वाले वृक्ष पर आठ दीपक प्रज्वलित करने चाहिए अथवा तीन रात्रियों (आश्विन अमावस्या और पूर्णिमा तथा कार्तिक पूर्णिमा) को अथवा केवल कार्तिक पूर्णिमा को ही। इसके देवता हैं धर्म, रुद्र तथा दामोदर। यह पूजाविधि प्रेतों तथा पितरों की तृप्ति के लिए है।
कान्तिव्रत
कार्तिक शुक्ल द्वितीया को इसका अनुष्ठान होता है। एक वर्ष पर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए। इसमें बलराम तथा केशव के पूजन का विधान है। साथ ही द्वितीया के चन्द्रमा की भी पूजा होती है। कार्तिक मास से चार मास तक तिल तथा घी से हवन करना चाहिए। वर्ष के अन्त में रजत से निर्मित चन्द्रमा का दान करना चाहिए।
कान्यकुब्ज (कन्नौज)
इसे अश्वतीर्थ कहा जाता है और एक नाम 'कुशीकतीर्थ' भी है। महर्षि ऋचीक ने यहाँ के राजा गाधि की कन्या सत्यवती से विवाह किया था। गाधि ने पहले इनसे शुल्क रूप में एक सहस्र श्यामकर्ण अश्व माँगे, जो ऋषि ने वरुणदेव से कहकर यहीं प्रकट कर दिये। गाधि के पुत्र विश्वामित्र हुए और ऋचीक के पुत्र जमदग्नि ऋषि। जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। यहाँ गौरीशंकर, क्षेमकरी देवी, फूलमती देवी तथा सिंहवाहिनी देवी के मन्दिर हैं। पहले कन्नौज वैभवपूर्ण नगर रह चुका है। गङ्गा इसके पास बहती थी। किन्तु अब धारा चार मील दूर चली गयी है। कन्नौज में अब भी कुछ प्राचीन अवशेष रह गये हैं। यह स्थान कानपुर से पचास मील पर है।
कान्यकुब्ज ब्राह्मण
भौगोलिक आधार पर ब्राह्मणों के दो बड़े विभाग हैं-- पञ्चगौड़ (उत्तर भारत के) तथा पञ्चद्रविड़ (दक्षिण भारत के)। पञ्चगौड़ों की ही एक शाखा कान्यकुब्ज है। गौड़ों का उद्गमस्थल कुरुक्षेत्र है। इस प्राचीन गौड़-भूमि के निवासी होने का कारण इस प्रदेश के ब्राह्मण गौड़ कहलाये। पञ्जाब और कश्मीर के ब्राह्मण सारस्वत हैं। प्रयाग के पास से कान्यकुब्ज तक फैले हुए ब्राह्मण कान्यकुब्ज कहलाये। कान्यकुब्जों में सरयूपारीण, जुझौतिया और बङ्गाली भी सम्मिलित हैं। पंच गौड़ों में मैथिल और उत्कल ब्राह्मण भी माने जाते हैं।