यह प्रकीर्णक (फुटकर) व्रत है। शुक्ल पक्षीय तृतीया, कृष्ण पक्षीय एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी अथवा संक्रान्ति को सुवर्ण की पुरी, जिसकी दीवारें भी सुवर्ण की हों अथवा चाँदी या जस्ता की हों तथा खम्भे सुवर्ण के हों, दान में दी जाय। उस पुरी के अन्दर विष्णु तथा लक्ष्मी की प्रतिमाएँ विराजमान करनी चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.868--876; भविष्योत्तर पुराण 147। भगवती का यह व्रत गौरी और भगवान् शिव, राम तथा सीता, दमयन्ती तथा नल, कृष्ण तथा पाण्डवों के द्वारा आचरित था। इस व्रत के आचरण से समस्त वस्तुएँ सुलभ, कामनाएँ पूर्ण तथा पापों का प्रक्षालन होता है।
काञ्ची (काञ्चीवरम्)
यह तीर्थपुरी दक्षिण की काशी मानी जाती है, जो मद्रास से 45 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। ऐसी अनुश्रुति है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल में ब्रह्मा ने देवी के दर्शन के लिए तप किया था। मोक्षदायिनी सप्त पुरियों--अयोध्या, मथुरा, द्वारका, माया (हरिद्वार), काशी, काञ्ची और अवन्तिका (उज्जैन) में इसकी गणना है। काञ्ची हरिहरात्मक पुरी है। इसके शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची दो भाग हैं। सम्भवतः कामाक्षीमन्दिर ही यहाँ का शक्तिपीठ है। दक्षिण के पञ्चतत्त्व लिङ्गों में से भूतत्त्वलिङ्ग के सम्बन्ध में कुछ मतभेद है। कुछ लोग काञ्ची के एकाम्रेश्वर लिङ्ग को भूतत्त्वलिग मानते हैं, और कुछ लोग तिरुवारूर की त्यागराजलिङ्गमूर्ति को। इसका माहात्म्य निम्नाङ्कित है :
काञ्ची आधुनिक काल में काञ्चीवरम् के नाम से प्रसिद्ध है। यह ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में महत्त्वपूर्ण नगर था। सम्भवतः यह दक्षिण भारत का नहीं तो तमिलनाडु का सबसे बड़ा केन्द्र था। बुद्धघोष के समकालीन प्रसिद्ध भाष्यकार धर्मपाल का जन्मस्थान यहीं था, इससे अनुमान किया जाता है कि यह बौद्धधर्मीय जीवन का केन्द्र था। यहाँ के सुन्दरतम मन्दिरों की परम्परा इस बात को प्रमाणित करती है कि यह स्थान दक्षिण भारत के धार्मिक क्रियाकलाप का अनेकों शताब्दियों तक केन्द्र रहा है। छठी शताब्दी में पल्लवों के संरक्षण से प्रारम्भ कर पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं शताब्दी तक विजयनगर के राजाओं के संरक्षणकाल के मध्य 1000 वर्ष के द्राविड़ मन्दिर शिल्प के विकास को यहाँ एक ही स्थान में देखा जा सकता है। 'कैलासनाथ' मन्दिर इस कला के चरमोत्कर्ष का उदाहरण है। एक दशाब्दी पीछे का बना 'वैकुण्ठ पेरुमल' इस कला के सौष्ठव का सूचक है। उपर्युक्त दोनों मन्दिर पल्लव नृपों के शिल्पकला प्रेम के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
काञ्चीपुराणम्
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 'काञ्ची अपार' एवं उनके गुरु 'शिवज्ञानयोगी' द्वारा काञ्चीवरम् में प्रचलित स्थानीय धार्मिक आख्यानों के सङ्कलन के रूप में 'काञ्चीपुराणम्' ग्रन्थ तमिल भाषा में रचा गया है।
काठक
कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाओं में से एक शाखा का नाम। उपर्युक्त वेद की चार संहिताएँ ऐसी हैं, जिनमें ब्राह्मणभाग की सामग्री भी मिश्रित है। इनमें से एक 'काठक संहिता' भी है। तैत्तिरीय आरण्यक में अंशतः काठक ब्राह्मण सुरक्षित है।
काठक गृह्यसूत्र
काठक गृह्यसूत्र कृष्ण यजुर्वेद शाखा का ग्रन्थ है एवं इस पर देवपाल की वृत्ति है। इसमें गृह्य संस्कारों और पाक यज्ञों का कृष्ण यजुर्वेद के अनुसार वर्णन पाया जाता है।
काठक ब्राह्मण
कृष्ण यजुर्वेद की काठक शाखा का ब्राह्मण, जो सम्पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं है। इसका कुछ भाग तैत्तिरीय आरण्यक में उपलब्ध हुआ है।
काठक संहिता
कृष्ण यजुर्वेद की चार संहिताओं में से एक। इस वेद की संहिताओं एवं ब्राह्मणों का पृथक् विभाजन नहीं है। संहिताओं में ब्राह्मणों की सामग्री भी भरी पड़ी है। इसके कृष्ण विशेषण का आशय यही है कि मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग का एक ही ग्रन्थ में मिश्रण हो जाने से दोनों का आपाततः पृथक् वर्गीकरण नहीं हो पाता। इस प्रकार शिष्यों को जो व्यामोह या अविवेक होता है वही इस वेद की 'कृष्णता' है।
काठकादिसंहिता
कृष्ण यजुर्वेद की काठकादि चारों संहिताओं का विभाग दूसरी संहिताओं से भिन्न है। इनमें पाँच भाग हैं, जिनमें से पहले तीन में चालीस स्थानक हैं। पाँचवें भाग में अश्वमेध यज्ञ का विवरण है।
काण्व
कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में जिन पूर्वाचार्यों की चर्चा है उनमें काण्व का भी नाम है। स्पष्टतः ये कण्व के वंशधर थे।
काण्वशाखा
शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा। इस शाखा के शतपथ ब्राह्ण में सत्रह काण्ड हैं। उसके पहले, पाँचवें और चौदहवें काण्ड के दो-दो भाग हैं। इस ब्राह्मण के एक सौ अध्याय हैं इसलिए यह 'शतपथ' कहलाता है। दे० 'शतपथ'।