Definitional Dictionary of Indian Philosophy (Hindi) (CSTT)
Commission for Scientific and Technical Terminology (CSTT)
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प्राप्यकारित्व
इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं या अप्राप्यकारी – इस पर दार्शनिक प्रस्थानों में मतभेद हैं। प्राप्यकारी का अर्थ है – संबंधित अर्थ का प्रकाशक। जब किसी विषय का सन्निकर्ष इन्द्रिय के साथ होता है – जब वह इन्द्रिय को उपरंजित करता है – तभी वह साक्षात्कृत होता है, अन्यथा नहीं। इन्द्रियाँ दूरस्थ विषय के साथ वृत्ति के माध्यम से संबंधित होती हैं।
सांख्यीयदृष्टि में इन्द्रियाँ अव्यापक हैं (प्रत्येक व्यक्त पदार्थ अव्यापी है, यह सांख्यकारिका (10) में कहा गया है; इन्द्रियाँ व्यक्त पदार्थ हैं), अतः स्वभावतः वे प्राप्यकारी (संबद्ध विषय की प्रकाशिका) ही होंगी। यद्यपि इन्द्रियाँ शारीरिक मन्त्रविशेष नहीं हैं, अहंकारोत्पन्न हैं, (शरीरस्थित मन्त्र इन्द्रियों के अधिष्ठान-मात्र हैं) तथापि वे असंबद्ध विषयों की प्रकाशिका नहीं होतीं। योगजसामर्थ्य-युक्त इन्द्रियाँ भी असंबद्ध विषयों का प्रकाशन नहीं करतीं। वे विषय सूक्ष्म, व्यवहित आदि होने पर भी इन्द्रिय से सम्बन्धयुक्त हो जाते हैं। इन्द्रियमार्ग से चित्त की वृत्तियाँ विषयदेश -पर्यन्त जाकर विषयाकार में परिणत होती हैं – ऐसा एक मत प्रचलित है। ऐसा होना न संभव है और न यह मत सांख्ययोग को अनुमत है – यह वर्तमान लेखक का मत है। चित्तपरिणामभूत वृत्तियों के लिए ऐसा प्रसर्पण करना असंभव है, क्योंकि चित्त और उसके परिणाम दोनों दैशिक व्याप्ति से शून्य हैं।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
प्रायण
सर्वोत्कृष्ट पारलौकिक फल प्रायण है, और वह प्रायण पुरुषोत्तम भगवान् स्वरूप है, क्योंकि वे ही स्वतः पुरुषार्थ के रूप में सबके लिए प्राप्य हैं (अ.भा.पृ. 1284)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
प्रीति
तप का द्वितीय लक्षण।
पाशुपत साधक को शास्त्रविहित अनुष्ठान संपन्न होने पर जो तृप्ति या संतोष होता है वह प्रीति कहलाता है। उस तृप्ति से उसे साधना के अनुष्ठान में रुचि बढ़ती है और उसकी साधना उत्तरोत्तर तीव्र होती जाती है। यदि साधना के अनुष्ठान से साधक को तुष्टि न मिले तो उसकी साधना विषयक रूचि मंद पड़ जाती है और फलस्वरूप वह न तो सिद्धि को ही पा सकता है और न मुक्ति को ही। (ग.का.टी.पृ.15)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
प्रेताचार
प्रेत की तरह आचार करना।
पाशुपत साधना में कई तरह के विरुप आचारों का उपदेश दिया गया है ताकि लोग पाशुपत साधक का अपमान करें और वह पूर्णरूपेण जगत से असंपृक्त हो जाए, उसमें अधिक से अधिक त्याग भावना का समावेश हो। इस तरह के आचारों में प्रेताचार भी एक तरह का आचार है। यहाँ पर प्रेत शब्द का मृत से तात्पर्य नहीं है अपितु पुरुष विशेष से है। पाशुपत साधक को अपने शरीर को उन्मत्त तथा दरिद्र पुरुष सदृश व बिना नहाए मैल से भरा रखना होता है तथा सभी प्रकार की स्वच्छता को त्यागना होता है। इस तरह से प्रेत अर्थात् गन्देव्रउन्मत्त पुरुष की तरह रहना होता है, क्योंकि ऐसे रहने से उसे इच्छित अपमान तथा निंदा मिलेगी और वर्णाश्रम धर्म का त्याग करने से संसार के प्रति बंधन शिथिल होते-होते वैराग्य उत्पन्न होगा और परिणामत: उसमें वास्तविक पुण्यों का उद्भव होगा। (पा.सू.कौ.भा.पृ 83)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
प्रेम भक्ति
भगवत्स्वरूप में सुदृढ़ स्नेह स्वरूप भक्ति प्रेम भक्ति है (अ.भा.पृ. 1068)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
प्रोल्लास भूमि
आत्म चैतन्य के परिपूर्ण उन्मेष की दशा। इसे निरानंद नामक आनंद को अभिव्यक्त करने वाली भूमिका भी कहा जाता है। (शि.सू.वा.पृ.21)। देखिए निरानंद।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
प्लुति